कहना था कुछ , क्या कहना था, जाने क्या कह गयी,
बात जो दिल में थी आज फिर, दिल ही में रह गयी ,
क्यूँ रुक रुक के लिखती हूँ मैं, क्यूँ हकलाऊं इतना,
वो पर्वत सी हिम्मत मेरी रेत सी क्यूँ ढह गयी ?
किस साहिल से टकराऊंगी, छोड़ किनारा अपना,
डरती हूँ जो इस ज्वार में आज अगर बह गयी ...
जैसा था फिर वैसा होगा, भरम ये कैसे पालूँ,
रिश्ते नाते पड़ जाएँ झूठे, जो मैं सच कह गयी,
कितना मुशकिल है अनदेखा कर पाना काँटों को,
जब काँटों में गुल मुस्काया फिर मैं सब सह गयी .....
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8 comments:
क्यूँ रुक रुक के लिखती हूँ मैं, क्यूँ हकलाऊं इतना,
वो पर्वत सी हिम्मत मेरी रेत सी क्यूँ ढह गयी ?
अच्छा भाव। बाबा नागार्जुन कहते हैं कि-
जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ?
जनकवि हूँ साफ कहूँगा क्यों हकलाऊँ?
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
वो पर्वत सी हिम्मत मेरी रेत सी क्यूँ ढह गयी ?
हिम्मत का ढहना ---- बहुत खूब
bahut badhiya rachana . badhai.
कितना मुशकिल है अनदेखा कर पाना काँटों को,
जब काँटों में गुल मुस्काया फिर मैं सब सह गयी..
वाह क्या गहराई है.. आपकी लेखनी में.. शुभकामनाएँ।
बहुत ही शानदार रचना......
bhut hi achchhi kavita hai. himmat aur sahas ki baat karne wali.apka prayas sarthak raha.
Navnit Nirav
बहुत उम्दा रचना है बधाई।
सुंदर लिखा है आपने..
बहुत अच्छा लगा..
http://kavikulwant.blogspot.com
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