कहना था कुछ , क्या कहना था, जाने क्या कह गयी,
बात जो दिल में थी आज फिर, दिल ही में रह गयी ,
क्यूँ रुक रुक के लिखती हूँ मैं, क्यूँ हकलाऊं इतना,
वो पर्वत सी हिम्मत मेरी रेत सी क्यूँ ढह गयी ?
किस साहिल से टकराऊंगी, छोड़ किनारा अपना,
डरती हूँ जो इस ज्वार में आज अगर बह गयी ...
जैसा था फिर वैसा होगा, भरम ये कैसे पालूँ,
रिश्ते नाते पड़ जाएँ झूठे, जो मैं सच कह गयी,
कितना मुशकिल है अनदेखा कर पाना काँटों को,
जब काँटों में गुल मुस्काया फिर मैं सब सह गयी .....
Wednesday, June 17, 2009
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