Thursday, July 31, 2008

कल सूरज नया नया होगा

ऐसा होता है ना , कभी कभी कोई कोई दिन बहुत भारी होता है |लगता है , आज ही सब एक साथ कैसे हुआ | परकहते हैं जो होता है अच्छा ही होता है | आज मन थोड़ा उदास था | पता नहीं शायद आपको कविता थोडी confused लगेगी | ऐसा हो तो क्षमा कीजियेगा | कल शायद एक नया दिन और एक नई कविता हो !

सुबह सुबह जो निकली घर से सब उजला - उजला था ,
हंसती हंसती खोई खोई , मन भी भला - भला था,

रात गई गई सी थी , अँधेरा गया गया था ,
किरण नई नई सी थी और सूरज नया नया था ,

किसी किसी दिन भाग्य उदित हो , और कभी उतरे है ,
उंच नीच के खेल , खेल ये मानव से परे है |

यूँ तो मैं कहती रहती हूँ , आज दिन था सुनने का ,
मिलना था , सो मिल गया, इनाम था सपना बुनने का |

जीवन के हर पर्व से,
मिलती थी मैं गर्व से ,
चार स्तम्भ के बूते पर मैंने हर युद्ध है जीता ,
मेरा परिवार, मेरी नौकरी , मेरे मित्र और मेरी कविता ,

यही चार मेरे जग थे , इन सबके महत्व अलग थे ,

पर आज जाने क्यों इनमे से मुझे चुनना पड़ा ,
आज मुझे अपनों से, अपनों के लिए, सुनना पड़ा |

माँ, बहु , पत्नी के तौर से , मुझे सब बातें देखनी थीं ,
और मेरे समय पर आधिपत्य करे,मेरी कविता और मेरी लेखनी थी !

सारे घर को प्रेम से मेरे , जाने कैसा बैर था |
पर प्यार मेरा बच ही जाता , खुदा का खैर था ,

ये बोले -अपने करियर पर तुम कोशिश तो चंद करो ,
छोडो ये शो और सम्मलेन , अब कविता लिखना बंद करो ,

सासु माँ की बानी - बहुरानी , दिन - रात - समय का मान करो ,
अपने शौक तो रहने दो , अब बस बच्चों पे ध्यान करो ,

आज हमारे परम मित्र ने , हमारी ही परीक्षा ले ली !
और नौकरी ने भी हमसे फिर आँख मिचौली है खेली ,

पलकों पर बैठें हैं मोती , तैयार हैं बाहर आने को ,
पर मैं डट गई हूं अब तो , अपनी मंजिल पाने को,

हर मोती, हर मित्र, सब कुछ , जीवन का बस एक पल है ,
पर जो रहता है साथ हमेशा , वो आने वाला कल है !

कल सुबह सुबह जो निकलूंगी मैं , सब उजला - उजला होगा ,
हंसती हंसती खोई खोई , मन भी भला - भला होगा ,

रात गई गई होगी , अँधेरा गया गया होगा ,
किरण नई नई होगी और सूरज नया नया होगा ............ ......... .........

Monday, July 28, 2008

पता है, नहीं हो , पर क्यों लगता है, यहीं हो

पता है, नहीं हो , पर क्यों लगता है, यहीं हो
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तुम क्यों दिखाना चाहते हो ,
की तुम्हें मेरी परवाह है ,
होंटों पे मुस्कान सजाते हो पर दिल में तो आह है ,

क्या तुम जताना चाहते हो ,
की तुम्हें मुझसे प्यार है ,
अरे ! प्यार में कहो, कैसी जीत, कैसी हार है ?

शायद तुम बताना चाहते हो,
की तुम्हारी ही हर बात रहे?
पर जिद के चलते , कैसे खुशियों का साथ रहे ?

हाँ ! तुम सताना चाहते हो ,
गर तुमको इतना गरूर है ,
तो हमें भी तुम्हारी चुनौती मंज़ूर है !

Friday, July 25, 2008

स्थिर चंचला -Sthir chanchala

किसने बनाया है समाज के नियमों को? उन सीमाओं को जिनको हम बिना प्रश्न किए अपनाते हैं ? कौन है इन सबमर्यादाओं , इन ढ़ान्चो का रचयिता ? हम ही | जब हम ही इन्हे बनाते हैं , तब समय के साथ इन्हे बदलने काप्रयास हमें अवश्य करना चाहिए वरना रुका हुआ पानी और अचल समाज रुढिवादिता एवं ठहराव का सूचक होगा |

क्या सोच विधाता ने जब सृष्टि बनायी थी,
तेरी सखी बनने को मैं धरती पे आई थी ...

पर काल चला चाल देख मेरी वो हँसी,
मैं आज के, समाज के, जंजाल में फँसी ,

बदला मेरा स्वरुप , मेरे भाव भी ढले,
दूर हुए हम, हुक्म समय के चले ,

मेरी उड़ान बाँध के छोटा बना दिया,
मन्दिर में सजी मैं कभी कोठा बना दिया ...

पित्र भक्ति थी कभी, स्वामी का क्रोश था ,
वात्सल्य प्रेम मैं मुझे , कहाँ होश था |

सती बनी कभी, मुझे सीता कहा गया ,
मेरी ही वंदना को कविता कहा गया .....

पर अब थक चुकी हूँ इन आडम्बरों से मैं ,
ये नाम मात्र मिथ्या के स्वयंवरों से मैं ,

क्यों है नहीं स्वतंत्रता, चाहूँ जो वो करूँ ,
क्यों मर मरके मर्यादा की रेखा से मैं डरूं?

प्रकृति से विमुख रहूँ ? क्या प्रसन्न इश्वर होगा ?
रचयिता इन नियमों का , निश्चय ही एक नर होगा !

हे मानव ! कर उन्मुक्त मुझे , बाँध मुझे तू पाश में ,
ना हो ऐसा , हँसते हँसते , उड़ जाऊं आकाश में !

आपकी,
- अर्चना

Thursday, July 17, 2008

kavita kya hai?

"कविता क्या है ?"

एक सांचा रूप समाज का, एक ढांचा है ये आज का ,
कविता एक इतिहास है , देश , राष्ट्र , स्वराज का |
अकबर बाबर की गाथा ये रानी झाँसी की धार है ,
कविता है संस्कृति, यही साहित्य का श्रृंगार है |


कविता के ही पुण्य भूमि से प्रेम कभी उपजा था ,
और कभी ये मधु बाला के अधरों पर सजा था ,
रामायण की मर्यादा या महाभारत की आग हो ,
फीका है वह लेख जिसमे कविता की ना राग हो ,


हर कविता के मन्दिर में , एक मर्म की मूरत होती है ,
कविता लिखने की भी किंचित तीन ही सूरत होती हैं -
तीन कारणों से ही कविवर आते हैं ताव में ,
भाव में , अभाव में या शक्ति के प्रभाव में ...


कविता के बहाव का जो चाव रखते हैं ,
समंदर पे कागज़ की एक नाव रखते हैं ,
और फिर सोचते हैं , चलो पार कर लें ,
बस कवि ही ऐसा अद्भुत भाव रखते हैं |

Thursday, July 10, 2008

Prem ka frame

किसी ने कभी पूछा था की आख़िर प्रेम क्या है ? जितना भी मेरा इस पर ज्ञान है, उसे जोड़ कर कुछ लिख रही हूँकिसी त्रुटी पर भृकुटी कृपया तानें सहायता करें की आगे गलती हो
प्रेम का frame

प्रेम भावना है,
मात्र अधरों की छाप नही है
ऊर्जा है जीवन की, मात्र तन का ताप नही है|
प्रेम रूप-रंग-नाम या आकार नहीं है ,
जो चल है, मल है , छल है, वह प्यार नहीं है !

प्रेम विश्वास है , ये हृदय का एक जाप है ,
प्रयास साथ साथ में , ये उन्नति का नाप है ,
ये शिष्टता का तप है , मर्यादा ये आप है ,
सीमा जो पार कर जाए , वह प्रेम नही, पाप है !

तू ही मेरा आख़िर कर , तू ही मेरा पहला होता ,
सच्चाई को जान ये मेरा दिल जो नहीं दहला होता ,
मैं तेरी लैला होती और तू मेरा छैला होता ,
हम हँसते गाते साथ साथ , जो दिल तेरा मैला होता ,

A रचना

डेफिनिशन-
चल - अस्थायी
मल - dirty
छल - धोखा