Wednesday, June 17, 2009

बात जो दिल में थी आज फिर..दिल ही में रह गयी....

कहना था कुछ , क्या कहना था, जाने क्या कह गयी,
बात जो दिल में थी आज फिर, दिल ही में रह गयी ,

क्यूँ रुक रुक के लिखती हूँ मैं, क्यूँ हकलाऊं इतना,
वो पर्वत सी हिम्मत मेरी रेत सी क्यूँ ढह गयी ?

किस साहिल से टकराऊंगी, छोड़ किनारा अपना,
डरती हूँ जो इस ज्वार में आज अगर बह गयी ...

जैसा था फिर वैसा होगा, भरम ये कैसे पालूँ,
रिश्ते नाते पड़ जाएँ झूठे, जो मैं सच कह गयी,

कितना मुशकिल है अनदेखा कर पाना काँटों को,
जब काँटों में गुल मुस्काया फिर मैं सब सह गयी .....

8 comments:

श्यामल सुमन said...

क्यूँ रुक रुक के लिखती हूँ मैं, क्यूँ हकलाऊं इतना,
वो पर्वत सी हिम्मत मेरी रेत सी क्यूँ ढह गयी ?

अच्छा भाव। बाबा नागार्जुन कहते हैं कि-

जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ?
जनकवि हूँ साफ कहूँगा क्यों हकलाऊँ?

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Anonymous said...

वो पर्वत सी हिम्मत मेरी रेत सी क्यूँ ढह गयी ?
हिम्मत का ढहना ---- बहुत खूब

समयचक्र said...

bahut badhiya rachana . badhai.

विवेक रस्तोगी said...

कितना मुशकिल है अनदेखा कर पाना काँटों को,
जब काँटों में गुल मुस्काया फिर मैं सब सह गयी..

वाह क्या गहराई है.. आपकी लेखनी में.. शुभकामनाएँ।

RAJNISH PARIHAR said...

बहुत ही शानदार रचना......

नवनीत नीरव said...

bhut hi achchhi kavita hai. himmat aur sahas ki baat karne wali.apka prayas sarthak raha.
Navnit Nirav

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत उम्दा रचना है बधाई।

Kavi Kulwant said...

सुंदर लिखा है आपने..
बहुत अच्छा लगा..
http://kavikulwant.blogspot.com