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http://www.youtube.com/watch?v=TFZb_tsV0oc
कई दिन पहले आया मुझको इंडिया से एक फोन,
मैंने पूछा बड़े प्यार से भाई तुम हो कौन,
उत्तर था साहित्य सम्मलेन करना एक है ,
मैंने कहा - आईडिया बड़ा ही नेक है ,
आया सवाल - क्या आप अपनी कोई रचना गा पाएँगी?
आप इसके हेतु भारत आ पाएँगी?
मारे ख़ुशी के कैसी कैसी भावनाएं जुड़ने लगी,
और बिना पंख ही मैं जैसे हवा में उड़ने लगी ,
लेकिन ज्यूँ ही ख्वाबों में प्लान मेरा बन गया,
रोटी, पानी, घर, बच्चों का आकर सवाल फिर तन गया,
मैं तब हारा हम के आगे, की मैंने उनसे बिनती,
है ज़िम्मेदारी, आयोजन में करें न मेरी गिनती,
कुछ चुप्पी के बाद श्रीमान डोले, और धीरे से बोले,
साहित्य की सेवा का मान कीजिये,
प्रवासी हैं , बढ़ चढ़ कर दान कीजिये,
इस पुनीत कार्य के ही योग सही,
आप नहीं आप का सहयोग सही !
ऐसी सोलिड मार्केटिंग के आगे मैं झुक गयी,
पर इस से पहले मैं कुछ भेजूं, मैं रुक गयी,
कितना, कैसे, क्यों, कहाँ , ज़ेहन में बात ये आई थी,
ज्यादा थोडा, जितना जोड़ा, सब मेहनत की कमाई थी,
आये इतने फोन की दर के मारे मैं गढ़ जाती थी,
लगता था हर बार किसी की उम्मीदें बढ़ जाती थी,
फिर मुझसे बन पाया जो भी मैंने भेजा उसके पास,
सोचा कुछ तो मदद मिलेगी, धन्यवाद की थी एक आस,
अपेक्षित से कम मिलने पर वह टूटा नहीं था,
निष्ठुर था, निर्भीक अति पर झूठा नहीं था,
करेले पे नीम का तेल ज्यूँ,
आया उसका अगला ईमेल यूं,
जी आपके इस चेक पे जो अंक है,
प्रवासी के नाम पे कलंक है,
सोचें, आपके प्रवास का क्या साख होता,
जो दान के इस चेक से रूपया लाख होता,
सुनकर मुझको हुआ अचम्भा, डॉलर की हम ढेर नहीं,
समझाऊँ तुमको कैसे, प्रवासी हैं , कुबेर नहीं ,
एक से पैंतालिस के दर का गाँव में मेरे चर्चा है,
वो न जानें, दर पैंतालिस का ही सारा खर्चा है,
टैक्स, हेल्थ, और इन्सुरांस का बोझ उठाना पड़ता है,
घर, गाडी, इंडिया टिकटों पर कितना लुटाना पड़ता है,
एकल, प्रथम, CRY और आशा, सब गायें भारत की भाषा,
दीन हीन, भुकमरी, गरीबी, लाचारी का भव्य तमाशा,
और आप सब देकर डॉलर,
ऊंची करते अपनी कॉलर,
शिक्षा अपने देश में पाकर,
बसे मगर परदेस में आकर,
दिलों में जलन, आँखों में नमी है,
हाँ यहाँ भी कमी है, यहाँ भी कमी है ,
अब मैं भी नींद से जागूंगी,
और भारत से कुछ मांगूंगी,
स्वप्न पूर्ण निशा दो, जीवन में दिशा दो,
दो मीठे बोल दो, प्यार ही में तोल दो,
प्रवासी का स्थान से ही मान नहीं हो,
अमरीका ही मेरी पहचान नहीं हो,
भाग्य ने देश बहार धकेला है,
यहाँ हर प्रवासी कितना अकेला है,
अब इस दीन को भी जीवन में प्यार चाहिए,
अपनों के बाहों का हार चाहिए,
सबको NRI लगता मीठा ढोकला है,
पर भीतर से प्रवासी सचमुच में खोखला है,
पूरा ही खोखला है ..........
Monday, December 21, 2009
Saturday, December 12, 2009
Friday, December 4, 2009
रुसवाई मुहब्बत की
रुसवाई मुहब्बत की कोई महफ़िल में गायेगा,
और उम्मीद भी करता है की वो लौट आएगा ....
अरे पहले मुहब्बत के उसूलों को तो पढ़ लो तुम,
जहाँ तुम तुम दिल उछालोगे, वहीँ ये चोट खायेगा...
-अर्चना
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और उम्मीद भी करता है की वो लौट आएगा ....
अरे पहले मुहब्बत के उसूलों को तो पढ़ लो तुम,
जहाँ तुम तुम दिल उछालोगे, वहीँ ये चोट खायेगा...
-अर्चना
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