किसने बनाया है समाज के नियमों को? उन सीमाओं को जिनको हम बिना प्रश्न किए अपनाते हैं ? कौन है इन सबमर्यादाओं , इन ढ़ान्चो का रचयिता ? हम ही न | जब हम ही इन्हे बनाते हैं , तब समय के साथ इन्हे बदलने काप्रयास हमें अवश्य करना चाहिए वरना रुका हुआ पानी और अचल समाज रुढिवादिता एवं ठहराव का सूचक होगा |
क्या सोच विधाता ने जब सृष्टि बनायी थी,
तेरी सखी बनने को मैं धरती पे आई थी ...
पर काल चला चाल देख मेरी वो हँसी,
मैं आज के, समाज के, जंजाल में फँसी ,
बदला मेरा स्वरुप , मेरे भाव भी ढले,
दूर हुए हम, हुक्म समय के चले ,
मेरी उड़ान बाँध के छोटा बना दिया,
मन्दिर में सजी मैं कभी कोठा बना दिया ...
पित्र भक्ति थी कभी, स्वामी का क्रोश था ,
वात्सल्य प्रेम मैं मुझे , कहाँ होश था |
सती बनी कभी, मुझे सीता कहा गया ,
मेरी ही वंदना को कविता कहा गया .....
पर अब थक चुकी हूँ इन आडम्बरों से मैं ,
ये नाम मात्र मिथ्या के स्वयंवरों से मैं ,
क्यों है नहीं स्वतंत्रता, चाहूँ जो वो करूँ ,
क्यों मर मरके मर्यादा की रेखा से मैं डरूं?
प्रकृति से विमुख रहूँ ? क्या प्रसन्न इश्वर होगा ?
रचयिता इन नियमों का , निश्चय ही एक नर होगा !
हे मानव ! कर उन्मुक्त मुझे , न बाँध मुझे तू पाश में ,
ना हो ऐसा , हँसते हँसते , उड़ जाऊं आकाश में !
आपकी,
- अर्चना
Friday, July 25, 2008
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2 comments:
Very nice poem Archana. Keep it up.
I guess all the women will echo this sentiment with you :) You put it together very gracefully.
~Rajni (from Muskhare group)
अर्चना जी,
आपकी कविता पढी. उस पर टिप्पणी लिखने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूँ. आपकी कविता में एक खामोश और घनीभूत पीड़ा रूपायित होती है और ऐसी ही अ-रचनात्मक व nakaaraatmak परिस्थितियों से इन दिनों मैं भी जूझ रहा हूँ, इसलिए टिप्पणी सीधे आपको- भेज रहा हूँ ई-कविता को नहीं.
पहले तो आपकी कविता के शिल्प और कला पक्ष की बात करूँ-! (सारे संत्रासों, पीड़ाओं और कठिनताओं के बीच भी कला और शिल्प के प्रति मेरा प्रबल आग्रह हमेशा रहता है.)
आपकी ये कविता, जैसा की आपने पूर्व-कथन में कहा भी है, सहज उद्भूत अभिव्यक्ति है. इसका प्रवाह अत्यन्त सहज और पहाडी नदी के जैसा बेलौस है. इसमें पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार का सफल प्रयोग हुआ है जो कविता की लयात्मकता को गति देने में और अर्थवत्ता को गुणात्मक रूप से वर्द्धित करने में सफल रहा है.
स्वप्न बड़े धोखेबाज़ होते हैं. ये बहकाते हैं, तो बहलाते भी हैं, ये समझाते हैं तो नासमझ और मासूम भी बन जाते हैं. लेकिन ये यथार्थ की नींव भी होते हैं. यथार्थ हमेशा ही स्वप्नों का मुखापेक्षी होता है. इसलिए सपने बुने जाने की अनिवार्यता असंदिग्ध है, उनका साथ ; बल्कि यूँ कहिये की उनके होने का एहसास मात्र ही रचनाधर्मिता के द्वार खोल देता है.
चार स्तम्भ किसी भी सरंचना को पूर्ण स्थायित्व देते हैं. चार स्तंभों पर टिकी सरंचना किसी भी बड़े से बड़े धक्के को सहने में समर्थ होती है. आपके व्यक्तित्व के चार स्तम्भ अपने मूलभूत वैशिष्ट्य में ही सुद्रढ़ हैं तो इन पर टिकी सरंचना के चिरंतन स्थायित्व पर कोई शंका नहीं हो सकती. इसका प्रमाण ये पंक्तियाँ है-
पलकों पर बैठें हैं मोती , तैयार हैं बाहर आने को ,
पर मैं डट गई हूं अब तो , अपनी मंजिल पाने को,
पलकों के मोतियों को बैठने दीजिये, उन्हें बाहर आने की अभी ज़रूरत नहीं है. जब होगी तब वो ख़ुद-ब-ख़ुद बाहर आ जायेंगे. अभी तो वो समझ ही गए हैं की उनकी बाहर आने की ज़रूरत अभी नहीं है. क्योंकि-
"पर मैं डट गई हूं अब तो , अपनी मंजिल पाने को"
यह जिजीविषा ही तो है जो हमें मनुष्य बनाए हुए है और हमारी जीवन्तता को रूपायित करती है.
और फिर कविता की ये अन्तिम पंक्तियाँ-
कल सुबह सुबह जो निकलूंगी मैं , सब उजला - उजला होगा ,
हंसती हंसती खोई खोई , मन भी भला - भला होगा ,
रात गई गई होगी , अँधेरा गया गया होगा ,
किरण नई नई होगी और सूरज नया नया होगा
............. सच कहता हूँ अर्चना जी, आपकी कविता पर बड़ी बड़ी बातें कहते हुए भी मेरे मन में जो रीतापन था, उसे आपकी इन पंक्तियों से बल मिला है.
जिस समय मैं ये पोस्ट लिख रहा हूँ उस समय भारतीय समयानुसार दोपहर के ०३ बज कर २७ मिनिट हुए हैं, आपके यहाँ अर्ध- रात्री के आस-पास का समय होगा और आप इस समय निद्रा मग्न होंगी. मैं अपने सच्चे दिल से आपके लिए ये कामना करता हूँ की जब सुबह आप सो कर उठें तो आपकी ही कविता की ये अन्तिम चार पंक्तियाँ साकार और चरितार्थ हों.
यदि कहीं मैंने कोई अतिक्रमण किया हो तो क्षमा-याचना.
सद्भाव सहित-
आनंदकृष्ण, जबलपुर.
पुनश्च:- गंगा पर आपकी कविता पाठ की शैली अत्यन्त प्रभाव-शाली थी गंगा को जैसे आपने साकार कर दिया था. आपके उच्चारण स्वर, आरोह-अवरोह और प्रस्तुतीकरण अद्भुत था उसके लिए बधाई स्वीकारें.
आनंदकृष्ण, जबलपुर
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