Thursday, May 8, 2008

America-अमरीका

मुकुराया देख हमने सोफे कुर्सी मेज़ को ,
भांति भांति के उपकरणों को , नई नवेली सेज को ,
हुए नहीं थे चार महीने भारत को छोडे हुए ,
घर से कोसों दूर , विदेशी सभ्यता ओढे हुए ,
उन दिनों भी मन के अन्दर कैसी वो आशाएं थीं ?
उमंगों की तरंगों की सतरंगी भाषाएँ थीं |

आए यहाँ तो रंगीली ये दुनिया हमको भा गई ,
ज्ञान विज्ञानं की इतनी प्रगति अपने दिल पर छा गई ,
लगे ठूंसने घर मैं अपने सामानों के भर ठेले ,
लगने लगे ठहाकों के मेरे घर पर भी मेले ,

अब तो इस धरती पर , इस हवा में तन रमने लगा ,
देख विदेशी चका-चौंध अपना भी मन जमने लगा ,

हो सकता है , अगली घर की यात्रा मन को भाये ,
पड़े रहें तब भी विदेशी चका-चौंध के ये साए ,

सम्भव हैं जाएँ हम भूल , निज देश की वह बंदगी,
धर्म भूलें कर्म भूलें, नज़र आए बस गन्दगी,

पर दिल के किसी कोने में अब भी एक आस है ,
घर भरा है किंतु मन में कमी का एहसास है ,

नहीं है तो बस नहीं है थपकियों का वो आँचल ,
खाने की मेज़ पे अपनों का वो कोलाहल ,
वो नाचने की धुन की मस्ती, गीतों का मधुर झंकार ,
वो प्यार वो तकरार , बच्चों सो जाओ की वो पुकार

अब तो अपने तेवर की करती है मिजाज़ पुर्सियाँ ,
ये कार ये टीवी ये मेज़ और ये कुर्सियाँ,

उन लोगों के लिए ये संदेश मेरे पास है ,
जिनके दिलों में भी परदेस की ही आस है

जब आना इस ओर तो थोडी माँ की खुशबू ले आना ,
बाँध सको तो गली मुहल्लों की आवाजें ले आना ,
संस्कृति इतनी लाना की आखरी वक्त तक साथ रहे ,
हो पाये तो मुट्ठी भर तुम देश प्रेम भी ले आना ,

मानों मेरी बात तभी तुम्हारा यहाँ दिल खिलेगा ,
क्योंकि इनमें से तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा,
कहीं नहीं मिलेगा , कभी नहीं मिलेगा |

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