ईदगाह
ईदगाह( मुशी प्रेमचंद की कहानी 'ईदगाह' पर आधारित )
हामिद था एक अच्छा बेटा अपनी माँ का प्यारा ,
बूढी आमना की धुंधली आंखों का तारा ,
गाँव में जब मेला था पाक ईद के मौके पर ,
लगी हुई थी खालिदा , रोटी में चूल्हे चौके पर ,
पोता मेरा खाना खाकर मेले में फिर जायेगा ,
सब बच्चों के जैसे वो भी भर भर खुशियाँ पायेगा ,
होते जो पैसे मुझपे दे देती भर के हाथ ,
लेकिन बस ये तीन पैसे हैं दूँ जो तेरे साथ ,
पैसे वो लेकर के हामिद भागा भर के दम ,
तीन पैसे भी लगे न उसको छह लाखों से कम,
सोचा उसने क्या लूँ में, अपने इतने पैसों में ,
लूँ मिठाई या खेल खिलौने , चुनना है ऐसों में ,
फिर देखा एक कोने में एक बन्दा था कुछ सिमटा ,
बेच रहा था चीख चीख कर वो लोहे का चिमटा...
याद आ गया हामिद को जब रात चूल्हा चलता है ,
बिन चिमटे के हर रोटी पर हाथ माँ का जलता है ,
छ: पैसे का था पर चिमटा सोचा कैसे लूँगा,
बोला भइया तीन का दे दे , ले के माँ को दूँगा ,
बच्चे की जो देखी सूरत बोला चिम्टेवाला ,
ले ले बेटा तीन में तू, जा ईद मनाले आला ,
लौट रहे थे जब घर को सब बच्चे मिल कर बोले ,
अपने सामानों की पुड़िया आओ अब हम खोलें ,
हँसें देख हामिद का चिमटा लेकिन हामिद बोला,
तुमपे तो सब कांच या मिटटी है, टूट पड़े जो डोला ,
मेरे लोहे का चिमटा है , मजबूती का नाम ,
रहे संग ये हरदम मेरे , मदद करे हर काम ,
आई दौडी माँ आँगन तक देखूं हामिद को मेरे ,
क्या खाया मेले में तूने, क्या भाया मन को तेरे ?
खाना खाकर निकला था माँ मैं भूख न थी कुछ मुझको ,
पर मेले से एक चिमटा माँ , लाया हूँ मैं तुझको ,
अबकी जब रोटी सेकेगी, तू चिमटे के साथ ,
होगी मुझको बहुत खुशी की जले न तेरे हाथ ,
माँ के आँसू रुक न सके फिर , पंख लगे थे पाँव में,
आज फ़रिश्ता ईदगाह से आया था ख़ुद गाँव में !
1 comment:
आदरणीय अर्चना जी,
प्रेमचंद की अत्यन्त महत्वपूर्ण कहानी ईदगाह का आपके द्वारा किया गया काव्यान्तरण बहुत सुंदर है. इसके पहले मैंने "हार की जीत " कहानी के काव्यान्तरण पर एक लम्बी प्रतिक्रिया भेजी थी.
आप बहुत अच्छा काम कर रही हैं. आपके इस काम में एक नई विधा के बीज दिखाई देते हैं. क्या इस प्रकार की कविता को "कथागीत" नाम दिया जाए-? अर्थात "कथागीत" ऐसी कविता है जो किसी कथा का काव्यरूप में अनुगायन करे."
एक निवेदन करने की धृष्टता कर रहा हूँ.
कृपया आप काव्यान्तरण करते समय कहानी के मूल तथ्यों पर ज़रूर ध्यान दें. "ईदगाह" की काव्यान्तरण में आपने "खालिदा" को "हामिद" की माँ बताया है, जबकि मूल कहानी में वो उसकी दादी है जिसका नाम "खालिदा" नहीं "आमना" है . साथ ही आपने बताया है की चिमटे वाले ने चिमटे की कीमत १० पैसे बताई थी और हामिद के पास छः पैसे थे. तो चिमटे वाले ने ने छः पैसे में उसे चिमटा दे दिया. मूल कहानी में हामिद के पास
कुल तीन पैसे थे, चिमटे वाले ने चिमटे की कीमत छः पैसे बताई थी हामिद ने तीन पैसे में माँगा, और चिमटे वाले ने उसे तीन पैसे में चिमटा दे दिया.
ईदगाह कहानी प्रेमचंद ही नहीं बल्कि समग्र भारतीय वांग्मय (क्षमा करें- इस शब्द की सही वर्तनी टाइप नहीं कर पा रहा हूँ) की सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में से एक है. कुछ समय पूर्व एक कार्यक्रम में मैंने "बाजारवाद और कहानी" पर एक व्याख्यान दिया था (जिसके अंश "रचनाकार" में दिसम्बर ०७ में प्रकाशित हुए थे.) उसमें मैंने प्रेमचंद की दो कहानिओं की बात की थी- ईदगाह और कफ़न. ये दोनों
कहानियां मानव पर बाज़ार के हावी होते जाने की और उससे उत्पन्न खतरों की गाथाएँ हैं. लेखक दृष्टा होता है. प्रेमचंद ने बाजारवाद के खतरों को उस समय भांप लिया था और उनका सामना करने के लिए इन दोनों कहानियों के माध्यम से दो विकल्प सुझाए थे या यूँ कहें की इनके माध्यम से आने वाले समय के दो संभावित रूपों को सामने रखा था. . यह दुखद है की बाज़ार का सामना करने के स्थान पर आज मानव स्वयं बाज़ार
के द्वारा परिचालित होने वाला मोहरा बन कर रह गया है. उसने "ईदगाह" के आदर्श के बदले "कफ़न" की भौतिकता को प्राथमिकता दी.
ये कहानियां अपने रचे जाने के समय से ज्यादा आज के युग में प्रासंगिक हैं. आपके कथागीत के माध्यम से पाठकों को इन कहानियों के पुनर्पठन करने का और इन पर पुनर्चिन्तन का एक अच्छा अवसर मिलेगा.
सादर-
आनंदकृष्ण, जबलपुर
मोबाइल : 09425800818
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