वतन की मिट्टी से हमने जो विरासत पाई है ,
वही कहानी और सीखें फिर याद किसी को आई हैं ,
कोशिश शुरू हुई है , उस शिक्षा को दोहराने की ,
गाने की , दर्शाने की, जीवन के एक अफ़साने की ,
हार की जीत
( सुदर्शन जी की कहानी 'हार की जीत' पर आधारित )
एक गाँव में रहता था एक पंडित बाबा भारती ,
नेक खुदा का बन्दा था वो सच्चाई उसे सहारती ,
था बस उसका एक प्यार , घोड़ा उसका सुलतान ,
वो ही उसकी ज़िन्दगी था, वो ही उसका मान,
आधी रोटी अपनी हरदम उसको देता था वो,
बैठ पीठ पर उसके खूब मज़े लेता था वो,
ऐसे ही दिन कट जाते , था किस्मत में कुछ और ,
एक दिन गुज़रा खड़क सिंह , डाकू था वो चोर,
पड़ी निगाह तो खुली रह गई देख सुलतान का रंग,
लग असोचने कैसे ले लूँ इसको अपने संग ,
पुछा उसने बाबा से क्या बेचोगे ये तुम,
देखा बाबा ने उसको बोले हो जाओ गुम..
तब चली एक चाल चोर ने बदला अपना भेष ,
बन बैठा एक भिखमंगा वो करके उलझे केश,
जो देखा उसने बाबा को आते अपने घोडे पे,
लगा कराहने करो मदद , रखे हाथ वो जोड़े पे ,
पूछा बाबा ने ए भाई क्या दर्द है तेरे पाँव में ,
कहा पहुंचना है बस जल्दी नजदीकी एक गाँव में ,
दिल था बाबा का कोमल बोले छोडूं आजा ,
बैठा चढ़ कर डाकू उसपर जैसे कोई राजा ,
दो पग भी न चल पाये थे , बाबा को दिया धक्का उसने ,
घोडे की धर डोर स्वयं ही , अपना रुख किया पक्का उसने ,
समझ चुके थे बाबा अब तो डाकू की वह गन्दी घात,
लेकिन कहा उन्होंने हंसके कहना नहीं कभी ये बात,
साथ छूटा नहीं गम मुझे किंतु होगा कष्ठ बड़ा ,
करे कोई न मदद दुखी की, होजो कोई रस्ते में खड़ा ,
जानेंगे जो बन रोगी तुमने लूटा है अब ,
फिर न करेगा मदद कोई भी भय में होंगे सब,
मुंह मोड़ कर अपना चल दिए अपने गाँव ,
एक साँस में पहुंचे घर तक, थके न उनके पाँव,
क्या देखें ? फिर अपने घर में, था उनका सुलतान खड़ा,
डाकू पर भी उन बातों ने कर डाला था असर बड़ा ,
चूम चूम साथी को बोले चल अब खुशियाँ जोडेंगे,
दीन दुखी की मदद से अब लोग मुंह नहीं मोडेंगे !
Thursday, May 8, 2008
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1 comment:
आदरणीय अर्चना जी,
आपकी भावनाएं प्रशंसनीय हैं आपने तीन कहानियों के अंतर्गत "हार की जीत !" को कविता का रूप दिया है जो बहुत अच्छा बन पडा है.
"हार की जीत" कहानी के रचनाकार "सुदर्शन" प्रेमचंद के समकालीन थे सुदर्शन एक प्रतिभाशाली कथाकार थे किंतु प्रेमचंद के तेजमय आभामंडल के सामने उनकी प्रतिभा और कृतित्व का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया. वे फ़िल्म लाइन में भी चले गए और उनके खाते में कुछ (उस ज़माने की) हिट फिल्में भी दर्ज हैं. कथ्यात्मकता शिल्प, आदर्श और प्रभाव की दृष्टि से उनकी कहानियां प्रेमचंद की कहानियों के समकक्ष ही हैं. उनकी भाषा प्रेमचंद की अपेक्षा अधिक परिमार्जित और सौष्ठव-पूर्ण थी.
अब आते हैं इस कहानी के काव्यान्तरण पर. विशेष रूप से इस कविता का जो स्वरुप है वो भी कथ्यात्मक है. यहाँ बुंदेलखंड में एक लोक-रचना है-आल्हा, जो वीर रस प्रधान काव्य है. इसके रचनाकार "जगनिक" कवि थे. आल्हा को इस पूरे क्षेत्र में बहुत लोकप्रियता प्राप्त है. यहाँ तक की जिस छंद में इसे लिखा गया है उस छंद का नाम ही "आल्हा छंद" हो गया है. इसे गाने की एक विशेष शैली है जो बहुत प्रभावपूर्ण और प्रवाहपूर्ण है. इस छंद में अनेक वीर-गाथाएँ बाद में भी लिखी गई हैं.
"हार की जीत" कहानी का आपके द्वारा किया गया काव्य रूपांतरण इसी आल्हा छंद में है. यदि आल्हा गाने की शैली आपको मालूम हो तो आप कृपया अपने स्वर में इसे स्वरबद्ध भी करें. "गंगा" पर आपके स्वर में प्रस्तुति बहुत प्रभावशाली थी. यदि न मालूम हो तो मुझे बताइयेगा- मैं mp3 फॉर्म में भेज दूंगा.
आपके द्वारा कहानियों के काव्यान्तरण को मैं एक नई विधा के रूप में देख रहा हूँ. इसके बारे में और अधिक जानने, पढने और लिखने के लिए उत्कंठित हूँ. और अन्य रचनाओं का प्रतीक्षक भी-
सादर-
आनंदकृष्ण, जबलपुर
मोबाइल : 09425800818
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