गुज़र रही थी ज़िन्दगी अपने ही तौर से ,
नज़र लगी किसी की ,मिले हम इश्क-ऐ-दौर से,
हंसने लगी है दर्पण,कलम भी मुस्कुराई,
ये मैं ही हूँ, या मिल रही हूँ शक्श-और से ?
हर वक्त दिल पर मची हुई परछाईयों की चीख!
कैसे करुँ मैं बंद कान हरसू ये शोर से,
दुनिया तो देखती है मेरे गीत का समाँ,
मिल सका है कौन उन गीतों के छोर से ?
मेरी उम्मीद भी है किसी बच्चे की तरह ,
कोई सुने, न सुने , रोये है ज़ोर से !
रिश्तों का क्या भरोसा? अभी हैं अभी नहीं,
पर दुनिया ही बसी है , इस रिश्तों की डोर से !
Saturday, August 16, 2008
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